Saturday, July 25, 2009
दलिया में कीड़े देखने वालों को गांधी ने अंधा बनाया
सिनेमा की तरह आपको एक फ्लैश बैक दिखाते हैं. जिला पंचायत के एक जनप्रतिनिधि को कुछ समझ में नहीं आया तो उन्होंने एक अभियान छेड़ा हर दूसरे दिन किसी स्कूल या आंगनबाड़ी केन्द्र जाती और जमीन में गिरी दलिया या कहीं कहीं बोरे से निकली दलिया को साथ में लाती जिसे कभी जिला पंचायत के सीईओ तो कभी कलेक्टर तो कभी अपनी फोटो के साथ अखबार बालों को देती. फिर उनकी फोटो के साथ भ्रष्टाचार की बिजबिजाती हुई खबर प्रकाशित होती. लेकिन इसका असर यह हुआ की अधिकारी तो दूर आमजन को भी यह हरकतें इतनी पिलपिली लगी की फोटोग्राफरों के कैमरों की फ्लैश लाइटें भी राजनीतिक सौदेबाजी का अंधेरा नहीं दूर कर पाईं. यहां हम आपको बता देना चाहेगें यह जनप्रतिनिधि कोई और नहीं जिला पंचायत अध्यक्ष है तब जिनकी पहचान सरकारी महकमें में सूड़े वाली मैडम के रूप में बन चुकी थी.
अब इस फ्लैश बैक से बाहर आएं और राजनीतिक रैकेट की ढपोरशंखी पर गौर करें (अखबारों की नजर से) अभी कुछ दिन पहले ही शहर की जानी मानी और तथाकथित चर्चित स्वयं सेवी संस्था जिस पर जेल में कंडोम बाटने का भी आरोप है ने सरकारी खजाने की लूटखसोट का प्रशिक्षण नामक नायाब नगीना लेकर चली आई. हमेशा की तरह ही इसने पंचायत प्रतिनिधियों को कागजों में प्रशिक्षण देना भी शुरू कर दिया लेकिन भला हो कुछ अखबार बालों का जिन्होंने इस एनजीओ की लरजती कार्यशैली और गांधी के दमदार असर से बाहर आकर इसका लाखों के खेल की पोल खोल दी. लगभग 82 लाख के घोटाले की पोल खुलते ही नेताओं, ऊंचे पदों पर बैठे अधिकारियों, स्वयं सिद्ध समाजसेवियों और चाटुकारों के गठजोड़ को सांप सूंघ गया.
एसआईआरडी की चौसर पर अपने पासे फेंक कर अनुपमा एजुकेशन सोसायटी की बिसात तब बिखर गई जब यह मामला एक अखबारी नेता ने उठाया. इसके बाद रेत की इमारत की तरह भरभरा खत्म हुए प्रशिक्षण के इस खेल में अब जो नई चाल चली जा रही है वह इन नैतिकतावादी लंबरदारों का पिलपिला स्याह चेहरा सामने ला रही है.
यहां से शुरू करते है जिला पंचायत अध्यक्ष की नई कहानी का...
ईमानदारी का दम भरने वाली जिला पंयायत अध्यक्ष एक बार फिर किसी की काली करतूतों की ढाल बन कर खडी हुई हैं. कुछ दिनों पहले सीईओ अस्थाना की अनियमितता छुपाने के लिए अपनी तथाकथित ईमानदारी को सामने रख अपने ही हस्ताक्षरों से पलटी खाकर अस्थाना को पाकसाफ साबित करने का असफल प्रयास कर चुकी जिला पंचायत अध्यक्ष एक बार फिर अनुपमा एजुकेशन सोसायटी के लाखों के घोटाले की रक्षा करने उतर पड़ी है.
एक ओर जहां पूरा मीडिया(नवभारत को छोड़कर) चीख चीख कर अनुपमा एजुकेशन सोसायटी के 82 लाख के घोटाले को सिद्ध कर चुका है, जिला पंचायत के सीईओ खुद प्रशिक्षण पर रोक लगा चुके है, जिला पंयायत अध्यक्ष श्रीमती पुष्पा गुप्ता खुद पंचायत मंत्री से इस प्रशिक्षण पर रोक लगाने की बात कह चुकी है(दैनिक जागरण) अब आखिर क्या हो गया है कि सारा प्रशिक्षण श्रीमती गुप्ता को साफ सुथरा नजर आने लगा .
दरअसल यह सब गांधी का प्रभाव है कि लूट खसोट पर आमादा एनजीओ की करतूत उन्हे अब ईमानदारी भरी लगने लगी है. अगर इन जनप्रतिनिधि का यही हाल रहा तो लोगों का इनसे विश्वास तो उठ ही चुका है इनको खुद अपनी ईमानदारी साबित करने अग्निपरीक्षा देनी होगी.
न्यूज पोस्ट मार्टम को मिले एक मेल को सही माना जाय तो इस पूरे मामले को दबाने के लंबी सेटिंग का खेल शुरू हो चुका है. मांगों क्या मांगते हो की तर्ज पर शुरू मैनेजमेंट के तहत एक जनप्रतिनिधि तो सेट हो ही गये जिनके बयान आज अखबारों में दिख ही रहे है. दूसरे जनप्रतिनिधि(मुद्दे को हवा देने वाले) पर भी 5 लाख तक का फंदा फेका गया है. अखबार वालो पर भी मेहरबानी का शरबत छिड़का जाने लगा है. जिसका असर आज एक प्रमुख दैनिक अखबार पर देखा जा सकता है.
इस मामले में अखबारों की स्थिति
दैनिक भास्करः मामले को शुरुआती दौर पर पूरी दमदारी से उठाने और प्रशिक्षण पर रोक लगाने में अहम् भूमिका. आज की खबर में वह धार नहीं दिखी.
जागरणः धीमी शुरुआत के साथ लगातार मुद्दे को अपडेट करते हुए आज शानदार तरीके से लेखन किया. अपनी अखबारी भूमिका का पूरी तरह निर्वाह करता नजर आया है रिपोर्टर.
नवभारतः अपेक्षा के अनुरूप काफी कमजोर प्रस्तुतिकरण नजर आ रहा है. शुरुआती दौर से एनजीओ के लिये सेफ साइट खेल रहे रिपोर्टर आज अखबारी दायित्वों की खानापूर्ति करते नजर आए.
Wednesday, July 22, 2009
...तो जनता ही लगाएगी पावर हाउस में आग
इसकी हकीकत देखना हो तो इधर कुछ दिनों के अखबारों की बानगी देखें...
० नवभारत ने आंगनबाड़ी भर्ती प्रक्रिया में जनप्रतिनिधि द्वारा सूची सौंपे जाने की खबर दी. यह सूची इसी जनप्रतिनिधि द्वारा दी गई थी.
० स्वदेश अखबार ने तो दो दिन पहले इस जनप्रतिनिधि की हकीकत ही सबके सामने रख दी जिससे सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि काफी शर्मनाक है उनका चरित्र.
० नई दुनिया ने भी अभी इशारों में सतना लाइम स्टोन में सफेदपोशों को शामिल कर इनकी ओर ईशारा किया है.
० इसके अलावा भास्कर, जागरण सहित सभी अखबार गाहे बगाहे अपनी खबरों में इशारे कर इस जनप्रतिनिधि की लीक से हटने की खबर दे रहे है.
अब बारी है जनता की तो वह सब समझ रही है. यही हालात रहे तो स्थिति यह हो जाएगी की जनता खुद ही अपने पावर हाउस में आग लगा देगी.
अब न्यूज एजेंसी के उन छुद्रान्वेषी वरिष्ठ पत्रकार को भी शायद नजर आने लगा होगा... कि पावर हाउस से किसके लिये कितनी बिजली का प्रोडेक्शन हो रहा है....
इसी की एक कड़ी का कुछ हिस्सा मेल द्वारा पोस्ट मार्टम को भेजा गया है जिसमें उठाए गये है कुछ सवाल
अभी ताजा ताजा बिछियन में हुए घटनाक्रम में पुलिस के मुखबिर के रूप में प्रचारित हो रहे लल्लू की मौत का सच उतना सामान्य नहीं है जितना पुलिस दिखाना चाह रही है. आम तौर पर जांच में महीनों गुजारने वाली पुलिस को क्या हो गया कि आनन फानन में हत्यारा पकड़ा गया. जबकि इस क्षेत्र में यह चर्चा दबी जुबान आम हो चली है कि यह हत्या क्षेत्र के राजनीति भविष्य का आगाज है. कहा जा रहा है कि लल्लू की हत्या के बाद सुन्दर पर लगे इकलौते केस बिछियन नरसंहार का इकलौता गवाह भी खत्म हो गया. यदि वह अब आत्म समर्पण करता है तो उसका बरी होना आसान हो जाएगा और फिर शुरू होगा तराई में राजनीति का नया चरण जिसकी शुरुआत कर सकता है सुन्दर पटेल. यह तो आशंका है लेकिन इस पूरी कहानी का सूत्रधार जिसे कहा जा रहा है उसमें भी जिले के इसी जनप्रतिनिधि का नाम आ रहा है की सारी कहानी की रचना इसी पावर हाउस में की जा रही है.
Sunday, July 19, 2009
रिपोर्टर की पत्रकारिता और रिश्तेदार का जलवा
विराट नगर की बैठक और जांच कमेटी पर आरोप
दूसरा एक प्रश्न यह उठता है कि इन जनप्रतिनिधि को क्या हक है कि वे जांच टीम से जानकारी सीधे तौर पर मौके पर लें. या तो वे टीम को अपने प्रभाव में लेना चाह रही है या फिर उनका इस मामले में खास इन्टरेस्ट है.
तीसरा और महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि जिला पंचायत के ही सम्मेलन में इस काम की जांच के लिये प्रस्ताव पास हुआ तथा तीन सदस्यीय जांच टीम बनाई गई तब तक इन जनप्रतिनिधि को सबकुछ सही लगा फिर अचानक क्या हो गया कि नागौद का काम सही दिखने लगा और जांच टीम गलत नजर आने लगी.
वे जनप्रतिनिधि तब सही हो सकती थी जब वे एकबारगी जांच टीम की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान उठाती लेकिन ताजे ताजे मैदान समतलीकरण के काम को सही ठहराना किसी के गले नहीं उतर रहा और साफ तौर पर उनकी भी मिलीभगत का संदेश जा रहा है.
सार संक्षेप यह है कि समतलीकरण की हकीकत महाविद्यालय के प्राचार्य स्वयं कुछ दिन पहले सभी अखबारों को बता चुके हैं. अब क्या जनप्रतिनिधि और क्या अधिकारी सभी अपने हित अपनी कमाई के लिये पाले निर्धारित करने लगे है.
पत्रकारिता की बेहतरी के लिये नौ सुझाव
पत्रकारिता के क्षेत्र में गिरावट आज बड़ी समस्या बन गई है. इस गिरावट को दूर करने के लिए हर जगह अपने-अपने यहां की जरूरत के हिसाब से रास्ते सुझाए जा रहे हैं. हालांकि, कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें हर जगह पत्रकारिता की कसौटी बनाया जा सकता है. सुझाव भी आ रहे हैं कि पत्रकारिता को पटरी पर कैसे लाया जाए. ऐसी ही नौ सुझावों को अमेरिका की ‘कमेटी आफ कंसर्डं जर्नलिस्ट’ ने सामने रखा है।
कमेटी आफ कंसर्डं जर्नलिस्ट वैसे पत्रकारों, प्रकाशकों, मीडिया मालिकों और पत्रकारिता प्रशिक्षण से जुड़े लोगों की समिति है जो पत्रकारिता के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। पत्रकारिता के भविष्य को सुरक्षित बनाए रखने के मकसद से यह समिति अपने तईं इस दिशा में प्रयासरत रहती है कि इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग पत्रकारिता को अन्य पेशों की तरह न समझें। बल्कि एक खास तरह की सामाजिक जिम्मेदारी को निबाहते हुए पत्रकार काम करें। समिति ने पत्रकारिता के बुनियादी तत्व के तौर पर नौ बातों को सामने रखा।
समिति ने अपने अध्ययन और शोध के बाद इस बात को स्थापित किया है कि सत्य को सामने लाना पत्रकार का दायित्व है। पर यहां सवाल उठता है कि इसका कितना पालन किया जा रहा है? इस कसौटी पर भारत की पत्रकारिता को कस कर देखा जाए तो हालात का अंदाजा सहज ही लग जाता है। अभी की पत्रकारिता में अपनी-अपनी सुविधा और स्वार्थ के हिसाब से खबरों को पेश किया जा रहा है। एक ही घटना को अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किया जाना भी इस बात को प्रमाणित करता है कि सत्य को सामने लाने की प्राथमिकता से मुंह मोड़ा जा रहा है। ऐसा इसलिए भी लगता है कि घटना से जुड़े तथ्य तो एक ही रहते हैं लेकिन इसकी प्रस्तुति अपने-अपने संस्थान की जरूरतों और अपनी निजी हितों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। पिछले साल जामिया एनकाउंटर बहुत चर्चा में रहा था। इस एनकाउंटर की रिपोर्टिंग की बाबत आई एक रपट में यह बात उजागर हुई कि तथ्यों को लेकर भी अलग-अलग मीडिया संस्थान अपनी सुविधा के अनुसार रिपोर्टिंग करते हैं। जब एक ही घटना की रिपोर्टिंग कई तरह से होगी, वो भी अलग-अलग तथ्यों के साथ तो इस बात को तो समझा ही जा सकता है कि सच कहीं पीछे छूट जाएगा। दुर्भाग्य से ही सही लेकिन ऐसा हो रहा है।
समिति ने अपने अध्ययन और शोध के आधार पर दूसरी बात यह स्थापित की कि पत्रकार को सबसे पहले जनता के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। इस कसौटी पर देखा जाए तो अपने यहां की पत्रकारिता में भी जनता के प्रति निष्ठा का घोर अभाव दिखता है। अभी के दौर में एक पत्रकार को किसी मीडिया संस्थान में कदम रखते हुए यह समझाया जाता है कि आप किसी मिशन भावना के साथ काम नहीं कर सकते हैं और आप एक नौकरी कर रहे हैं। इसलिए स्वभाविक तौर पर आपकी जिम्मेदारी अपने नियोक्ता के प्रति है। इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि आपकी पगार मीडिया मालिक देते हैं इसलिए उनकी मर्जी के मुताबिक काम करना ही इस दौर की पत्रकारिता है। यहां इस बात को समझना आवश्यक है कि अगर मालिक की प्रतिबद्धता भी पत्रकारिता के प्रति है तब तो हालात सामान्य रहेंगे। पर आज इस बात को भी देखना होगा कि मीडिया में लगने वाले पैसे का चरित्र का किस तेजी के साथ बदला है। जब अपराधियों और नेताओं के पैसे से मीडिया घराने स्थापित होंगे तो स्वाभाविक तौर पर उनकी प्राथमिकताएं अलग होंगी। इसी के हिसाब से उन संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों की जवाबदेही तय होगी। इस दृष्टि से अगर देखा जाए तो हिंदुस्तान में मुख्यधारा की पत्रकारिता में गिने-चुने संस्थान ही ऐसे दिखते हैं कि जहां के पत्रकारों के लिए जनता के प्रति निष्ठावान होने की थोड़ी-बहुत संभावना है।
समिति के मुताबिक खबर तैयार करने के लिए मिलने वाली सूचनाओं की पुष्टि में अनुशासन को बनाए रखना पत्रकारिता का एक अहम तत्व है। इस आधार पर अगर देखा जाए तो पुष्टि की परंपरा ही गायब होती जा रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो बीते साल मुंबई में हुए हमले के मीडिया कवरेज के दौरान देखने को मिला। एक खबरिया चैनल ने खुद को आतंकवादी कहने वाले एक व्यक्ति से फोन पर हुई बातचीत का सीधा प्रसारण कर दिया। अब यहां सवाल यह उठता है कि क्या वह व्यक्ति सचमुच उस आतंकवादी संगठन से संबद्ध था या फिर वह मीडिया संगठन का इस्तेमाल कर रहा था। जिस समाचार संगठन ने उस साक्षात्कार में उस इंटरव्यू को प्रसारित किया क्या उसने इस बात की पुष्टि की थी कि वह व्यक्ति मुंबई हमले के जिम्मेवार आतंकवादी संगठन से संबंध रखता है। निश्चित तौर ऐसा नहीं किया गया था। बजाहिर, यहां सूचना के स्रोत की पुष्टि में अपेक्षित अनुशासन की उपेक्षा की गई। ऐसे कई मामले भारतीय मीडिया में समय-समय पर देखे जा सकते हैं। हालांकि, आतंकवादी का इंटरव्यू प्रसारित करने के मामले में एक अहम सवाल तो यह भी है कि क्या किसी आतंकवादी को अपनी बात को प्रचारित और प्रसारित करने के लिए मीडिया का एक मजबूत मंच देना सही है? ज्यादातर लोग इस सवाल के जवाब में नकारात्मक जवाब ही देंगे।
समिति ने कहा है कि पत्रकारिता करने वालों को वैसे लोगों के प्रभाव से खुद को स्वतंत्र रखना चाहिए जिन्हें वे कवर करते हों। इस कसौटी पर भी अगर देखा जाए तो भारत की पत्रकारिता के समक्ष यह एक बड़ा संकट दिखता है। अपने निजी संबंधों के आधार पर खबर लिखने की कुप्रथा चल पड़ी है। कई ऐसे मामले उजागर हुए हैं जिसमें यह देखा गया है कि निहित स्वार्थ के लिए खबर लिखी गई हो। कई बार वैसी ही पत्रकारिता होती दिखती है जिस तरह की पत्रकारिता सूचना देने वाले चाहते हैं। राजनीति और अपराध की रिपोर्टिंग करते वक्त यह समस्या और भी बढ़ जाती है। राजनीति के मामले में नेता जो जानकारी देते हैं उसी को इस तरह से पेश किय जाता है जैसे असली खबर यही हो। नेता कब मीडिया का इस्तेमाल करने लगते हैं, इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं होता है। अपराध की रिपोर्टिंग करते वक्त जो जानकारी पुलिस देती है उसी के प्रभाव में आकर अपराध की पत्रकारिता होने लगती है। पुलिस अपने द्वारा की गई हत्या को एनकाउंटर बताती है और ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि मीडया उसे एनकाउंटर के तौर पर ही प्रस्तुत करती है।
समिति इस नतीजे पर भी पहुंची कि पत्रकारिता को सत्ता की स्वतंत्र निगरानी करने वाली व्यवस्था के तौर पर काम करना चाहिए। इस बिंदु पर सोचने के बाद यह पता चलता है कि जब पत्रकार सत्ता से नजदीकी बढ़ाने के लोभ का संवरण नहीं कर पाता है तो पत्रकारिता कहीं पीछे रह जाती है। भारत की पत्रकारिता के बारे में एक बार किसी बड़े विदेशी पत्रकार ने कहा था कि यहां जो भी अच्छे पत्रकार होते हैं उन्हें राज्य सभा भेजकर उनकी धार को कुंद कर दिया जाता है। राज्य सभा पहुंच कर अपनी पत्रकारिता की धार को कुंद करने वाले पत्रकारों के नाम याद करने में यहां की पत्रकारिता को जानने-समझने वालों को दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं देना पड़ेगा। ऐसे पत्रकार भी अक्सर मिल जाते हैं जो यह बताने में बेहद गर्व का अनुभव करते हैं कि उनके संबंध फलां नेता के साथ या फलां उद्योगपति के साथ बहुत अच्छे हैं। यही संबंध उन पत्रकारों से पत्रकारिता के बजाए जनसंपर्क का कार्य करवाने लगता है और उन्हें इस बात का पता भी नहीं चलता है। जब यह पता चलता है तब तक वे उसमें इतना सुख और सुविधाएं पाने लगते हैं कि उसे ये समय के नाम पर सही ठहराते हुए आगे बढ़ते जाते हैं।
समिति अपने अध्ययन के आधार पर इस नतीजे पर पहुंची है कि पत्रकारिता को जन आलोचना के लिए एक मंच मुहैया कराना चाहिए। इसकी व्याख्या इस तरह से की जा सकती है कि जिस मसले पर जनता के बीच प्रतिक्रिया स्वाभाविक तौर पर उत्पन्न हो उसके अभिव्यक्ति का जरिया पत्रकारिता को बनना चाहिए। लेकिन आज कल ऐसा हो नहीं रहा है। इसमें मीडिया घराने उन सभी बातों को प्रमुखता से उठाते हैं जिन्हें वे अपने व्यावसायिक हितों के पोषण के लिए उपयुक्त समझते हैं। उनके लिए जनता के स्वाभाविक मसले को उठाना समय और जगह की बरबादी करना है। ये सब होता है जनता की पसंद के नाम पर। जो भी परोसा जाता है उसके बारे में कहा जाता है कि लोग उसे पसंद करते हैं इसलिए वे उसे प्रकाशित या प्रसारित कर रहे हैं। जबकि विषयों के चयन में सही मायने में जनता की कोई भागीदारी होती ही नहीं है। इसलिए जनता जिस मसले पर व्यवस्था की आलोचना करनी चाहती है वह मसला मीडिया से दूर रह जाता है। इसका असर यह हो रहा है कि वैसे मसले ही मीडिया में प्रमुखता से छाए हुए दिखते हैं या उनकी मात्रा ज्यादा रहती है जो लोगों को रोजमर्रा के कामों में ही उलझाए रखे और उन्हें उस दायरे से बाहर सोचने का मौका ही नहीं दे।
समिति ने पत्रकारिता के अनिवार्य तत्व के तौर पर कहा है कि पत्रकार को इस दिशा में प्रयत्नशील रहना चाहिए कि खबर को सार्थक, रोचक और प्रासंगिक बनाया जा सके। इस आधार पर तो बस इतना ही कहा जा सकता है कि खबर को रोचक और प्रासंगिक बनाने की कोशिश तो यहां की पत्रकारिता में दिखती है लेकिन उसे सार्थक बनाने की दिशा में पहले करते हुए कम से कम मुख्यधारा के मीडिया घराने तो नहीं दिखते। सही मायने में जो संस्थान सार्थक पत्रकारिता कर रहे हैं, वे बड़े सीमित संसाधनों के साथ चलने वाले संस्थान हैं। उनके पास हर वक्त विज्ञापनों का टोटा रहता है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अगर पत्रकारिता सार्थक होने लगेगी तो बाजार के लिए अपना हित साधना आसान नहीं रह जाएगा। इसलिए बडे़ मीडिया घराने विज्ञापन और संसाधन के मामले में अमीर होते हैं और सार्थकता के मामले में उनकी अमीरी नजर नहीं आती।
समिति के मुताबिक समाचार को विस्तृत और आनुपातिक होना चाहिए। इस नजरिए से देखा जाए तो इसी बात में खबरों के लिए आवश्यक संतुलन का तत्व भी शामिल है। विस्तार के मामले में अभी जो हालात हैं उन्हें देखते हुए यह तो कहा जा सकता है कि स्थिति बहुत अच्छी नहीं है लेकिन बहुत बुरी भी नहीं है। जहां तक संतुलन का सवाल है तो इस मामले में व्यापक सुधार की जरूरत दिखती है। संतुलन में अभाव की वजह से ही आज ज्यादातर मीडिया घरानों की एक पहचान बन गई है कि फलां मीडिया घराना तो फलां राजनीतिक विचारधारा के आधार पर ही लाइन लेगा। इसे शुभ संकेत तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन दुर्भाग्य से यह चलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है। इस मामले में पश्चिमी देशों की मीडिया में तो हालात और भी खराब हैं। अमेरिका में हाल ही हुए चुनाव में तो अखबारों ने तो बाकायदा खास उम्मीदवार का पक्ष घोषित तौर पर लिया।
आखिर में समिति ने पत्रकारिता के लिए एक अहम तत्व के तौर पर इस बात को शामिल किया है कि पत्रकारों को अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी हर हाल में होनी ही चाहिए। इस कसौटी की बाबत तो बस इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि सही मायने में पत्रकारों के पास अपना विवेक इस्तेमाल करने की आजादी होती तो जिन समस्याओं की बात आज की जा रही है, उन पर बात करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
Saturday, July 18, 2009
जिपं अध्यक्ष का जांच टीम पर संदेह
दूसरा यहां अखबार और उसके रिपोर्टरों की भूमिका काफी शानदार रही और वे सभी अपने कर्तव्यों का पालन बड़े जोर शोर से करते नजर आए. जबकि पूर्व में यही अखबार वहां अनियमितता पूर्व में स्वयं लिख चुके हैं. मसलन दैनिक भास्कर ने कुछ दिन पूर्व वहां कीगड़बड़ी उजागर किया था वहीं अपनी खबर के विपरीत जिपं अध्यक्ष का बयान छाप रहा है. यही हाल दैनिक नवभारत का है. यहां के रिपोर्टर ने भी अपनी ही खबर को हल्का करने का प्रयास किया है. इतना ही नहीं सीईओ को ओब्लाइज करने उन्होंने बकायदे उससे बातचीत करके उसके बयान के आधार पर एक पूरी खबर जांच टीम के खिलाफ मामला थाने में दर्ज कराने की छापी वहीं सीईओ का अलग से बयान बनाते हुए उसमें भी जांच टीम के खिलाफ केस दर्ज होने का उल्लेख किया. इससे साफ प्रतीत होता है कि संबंध बेहतर निभाए गए हैं. दैनिक जागरण ने इनसे दो कदम आगे जाकर पुष्पा गुप्ता के बयान को इतना बड़ा छाप दिया कि ऐसा लग रहा है कि जांच टीम ही दोषी है. खैर एक एनजीओ को एनजीओ ही सहायता करेगी. यहां के रिपोर्टर भी एनजीओ होल्डर हैं. सवाल अखबारों द्वारा लिखने का नहीं है सवाल है उनकी विश्वसनीयता का कि कोई कुछ भी कह दे और उसे छाप दिया जाये. जबकि यह निर्णय तो उनका स्वतंत्र होता है. आज की खबर से पाठक यह नहीं समझ पा रहा है सीईओ दोषी है या जांच टीम. रिपोर्टर भी बकायदे अपने अधिकारी प्रेम की लाज रखते नजर आएँ हैं तो संपादकों ने भी गांधारी की तरह पट्टी बांध रखी है.
इसी मामले से जुड़ी न्यूजपोस्टमार्टम को मिली एक ईमेल में बताया गया है कि नागौद के नियमविरुद्ध हो रहे समतली करण के कार्य को बिना किसी के पूछे सही ठहराने वाली जिपं अध्यक्ष को यह नहीं दिख रहा है कि एसजीएसवाई के तहत गाईड लाइन के विपरीत भी एक एनजीओ को व्यूटी पार्लर का प्रशिक्षण दिये जाने की अनुमति दी गई और उसे दो-ढाई लाख के लगभग भुगतान भी कर दिया गया. शायद यह अनियमितता जिला पंचायत अध्यक्ष को नहीं नजर आई होगी. जबकि यह मामला मझगवां व उचेहरा के प्रशिक्षण से जुड़ा है.
Friday, July 17, 2009
मास्टर साहब और उनका हवा में पदांकन
Wednesday, July 15, 2009
निगमायुक्त की मार्जिन मनी और कलेक्टर का गुस्सा
जनप्रतिनिधि का अश्वमेध यज्ञ
वहीं दूसरी ओर निगमायुक्त स्थानान्तरण मामले में कलेक्टर ने भी अपना दामन दागदार कर लिया है. अब तक स्वतंत्र छवि बनाने वाले कलेक्टर की कल की आनन फानन में ज्वाइनिंग की कराई गई कार्रवाई ने उन्हे में कटघरे में खड़ा कर दिया है साथ ही लोगों को यह कहने का मौका दे दिया है कि उन्होने ने भी अश्वमेध यज्ञ के घोड़े के सामने हाथ जोड़ लिये है. हालांकि उन्हे शायद यह मालूम होगा कि इसी जनप्रतिनिधि ने मुख्यमंत्री से जिले के दोनो आला अधिकारियों को यहां से हटाने की बात कही थी लेकिन सीएम ने उनकी एक ही मांग पूरी की.
इसके अलावा जनता को एक बार फिर याद आने लगा है
० तत्कालीन एसपी का गांजा गिरोह पर धावा व मुखिया की गर्दन पर शिकंजा
० एसडीएम अमरपाटन का एक समारोह में एक जिले के जनप्रतिनिधि की अनदेखी
० निगमायुक्त का इज्जत की बात बनी नई बस्ती की पानी टंकी का उद्घाटन किसी अन्य जनप्रतिनिधि से कराना
पावर और पत्रकार
सीएम की घोषणा और योजना की गाइड लाइन
हाथ ठेला सम्मेलन बनाम पार्टी का खर्च मैनेजमेंट
इसके अलाबा एक खबर मझगवां जनपद के किसी मजदूर के घायल होने के काफी पुराने मामले में न्यायालय के फैसले की मेल द्वारा आई है. इसमें पता चला है कि राशि का भुगतान किसी योजना की राशि द्वारा किये जाने की साजिश जिपं के अधिकारियों द्वारा रची जा रही है.
प्रेस फोटो ग्राफरों की कलुषित मानसिकता
Wednesday, July 1, 2009
अधिकारी का साला और बैंक मैनेजर
मेल में बताया गया है कि बिगत दिवस इलाहाबाद बैंक श्यामनगर(कोलगढ़ी) कै बैंक मैनेजर पर जिला पंचायत के सीईओ ने एसजीएसवाई के तहत काफी मेहरबानी दिखाई है. प्रकरणों में फिसड्डी चल रहे इस बैंक पर न जाने क्यों इतनी मेहरबानी कर दी गई कि इसे एक करोड़ रुपये की राशि एडवांस दे दी गई. चार किश्तों में जारी की गई राशि के मामले में मेल में बताया गया है कि इस बैंक के अलावा भी कई बैंक ऐसे हैं जिन्होंने एसजीएसवाई में काफी काम किया है लेकिन उन्हें इतनी राशि नहीं दी गई लेकिन इलाहाबाद बैंक श्यामनगर को नाम मात्र के प्रकरणों के बिनाह पर एक करोड़ राशि एडवांस देना मामले में लेनदेन को साफ स्पष्ट कर रहा है.
इसी मेल में आगे इससे संबंधित एक अधिकारी के बारे में यह भी बताया गया है कि उनका साला हर माह आता है और अधिकारी से राशि लेकर उनके गांव पहुंचाता है जहां वहां के बैंक खातों में यह उगाही की राशि जमा करा दी जाती है. बहरहाल सीईओ और बैंक मैनेजर का यह प्रेम और साले जीजा की कहानी अब आम होती जा रही है तथा कार्यालय में जमकर चटखारे लिये जा रहे हैं.