
उम्मीदवारों से अखबारों के मालिकान के निर्देश पर स्थानीय प्रमुख 'डील' करते हैं. प्रत्याशी भी चुनाव खर्च कम करने के लिये पत्रकारों को मोटी रकम देकर विज्ञापन की जगह चुनाव पेज पर पाजीटिव खबर छपवाने में सुविधा महसूस करते हैं. इन खबरों में दाता प्रत्याशी को मजबूत और विजय के करीब बताने की कोशिश होती है जबकि पैसा नहीं देने या डील नहीं करने वाले उम्मीदवार को कमजोर या मैदान से बाहर बता दिया जाता है.
ऐसे माहौल में अखबार और इलेक्ट्रानिक न्यूज चैनलों से जनसरोकार वाली पत्रकारिता की उम्मीद करना बेमानी है. क्योंकि उनका ध्यान खबर और पत्रकारिता से नहीं पेड न्यूज से आने वाली कमाई पर रहता है. भारत निर्वाचन आयोग का ध्यान अभी शायद इस ओर नहीं गया है. हो सकता है चुनाव आयोग के समक्ष ऐसी बात आने पर आगामी समय में कोई दिशा निर्देश जारी कर इस परम्परा पर लगाम लगाये और विज्ञापन तथा पेड न्यूज में समानता ढढ़ने का प्रयास करे.
सही कह रहे है जनाब निर्वाचन आयोग को इस प्रथा पर लगाम लगानी चाहिए ताकि हर उम्मीदवार को समानता के अवसर मिले और निस्पक्छ चुनाव हो सके तथा मिडिया की अवेध कमाई रुके और उन्हें दाइत्व बोध हो अखवार पढने पर तो ऐसा लगता है जैसे सभी चारो प्रत्यासी जीत रहे हो \
ReplyDeletepratyashi 5 saal janta ki gadhi kamai ki maa chode to koi baat nahin,press wale thoda sa maang len to gaand phat jaati hai.saal bhar kutte billi ke bhi karyakram main apni photo chapwane ka shauk inhi gandu netaon ko rehta hai.jab apni jeb se paisa nikalna padta hai,to inki nani mar jaati hai.
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